एक बार की बात है, एक हरे-भरे मैदान में, बलूत के पेड़ों के पास चींटियों का एक बड़ा घर था जहाँ सभी व्यस्त थे। वहाँ सभी चींटियाँ आगे-पीछे मार्च कर रही थीं, और तरह-तरह की चीज़ें उठा रही थीं। पास ही एक नौजवान टिड्डा घास खा रहा था। वो थोड़ी देर तक चींटियों को देखता रहा, फिर आख़िर उसने पूछ ही लिया:
“अरे चींटियों, तुम क्या उठा रही हो?”
“हम सर्दियों के लिए खाना इकट्ठा कर रही हैं। जब सर्दी का मौसम आएगा और बर्फ गिरेगी तो यह सब ढक जाएगा। सब कुछ जम जाएगा और तब कुछ भी खाने को नहीं मिलेगा।” उनमें से एक चींटी ने समझाया।
टिड्डा ज़ोर से हँस पड़ा। “ये लोग कितने बेवकूफ हैं जो इतनी अच्छी गर्मियों की धूप में भी काम कर रही हैं,” उसने सोचा। फिर वो चींटियों से बोला,
“अरे चींटियों! आज का दिन कितना सुहाना है! थोड़ी मस्ती कर लो, खेलो-कूदो। क्या तुम्हें नहीं पता, जब मौसम इतना अच्छा हो, तब सिर्फ़ बेवकूफ ही काम करते हैं?”
लेकिन चींटियों ने उसकी बात नहीं मानी। वे चुपचाप अपने काम में लगी रहीं और जो उन्हें मिलता गया जमा करती रहीं ताकि सर्दियों में उनके पास सब कुछ हो। उन्होंने बड़ी-बड़ी पत्तियाँ और छोटे-छोटे तिनके जमा किए ताकि वो आने वाली सर्दियों के लिए चींटियों के बाड़े को मज़बूत बना सकें।
वे गहरे जंगल से मशरूम, ब्लूबेरी और अन्य फल भी इकट्ठा कर रहे थे ताकि पूरे साल कुछ खाने को मिल सके। मूर्ख टिड्डा अब भी मैदान में इधर-उधर उछलता फिर रहा था और अपने दिन बर्बाद कर रहा था। जब भी वह चींटियों के पास से गुज़रता, वह उन्हें मस्ती करने और धूप का आनंद लेने के लिए मनाने की कोशिश करता।
"आओ, मेरे साथ खेलो!" वह पुकारता। लेकिन मेहनती चींटियाँ बस अपने छोटे-छोटे सिर हिलाती…