दो धूल भरी साइकिलें कबाड़खाने के एक कोने में लोहे-लक्कड़ के ढेर पर पड़ी थीं। वे बारिश में भीग गई थीं, जंग खा रही थीं और बस यूँ ही इंतज़ार कर रही थीं। उन्हें यह भी नहीं पता था कि किसका। आख़िर कबाड़खाने में किसी के लिए आमतौर पर कुछ मज़ेदार तो होता नहीं है।
एक रात कूड़ा उठाने वाली गाड़ी एक और ढेर लेकर आई… और उसमें से एक तीसरी साइकिल गिर पड़ी — पूरी तरह टूटी-फूटी, लेकिन अभी तक जंग नहीं लगी थी।
कोने में पड़ी दोनों साइकिलों को देखकर वह सीधा उनकी ओर बढ़ चली। जैसे ही वह हिली, कबाड़खाने में अजीब-अजीब आवाज़ें गूंजने लगीं: पहिए चरमराए, चेन खड़खड़ाई, ब्रेक चीखी, और हैंडल सीटियाँ बजाने लगा। बिलकुल जैसे कोई ऑर्केस्ट्रा बज रहा हो! लेकिन ऐसा ऑर्केस्ट्रा जिसमें कान बंद कर लेने का मन करे।
दोनों धूल भरी साइकिलों ने मुँह बनाया। पीली वाली बोली: “बस यही रह गया था देखना!”
और सफेद वाली ने जोड़ा: “अब तीन टूटी साइकिलें… दो से भी बुरा हाल!”
वे एक-दूसरे को घूरती रहीं, जब तक कि नई साइकिल ने अभिवादन नहीं किया: “कैसे हैं आप लोग, महाशयों?”
“महाशय...,” सफेद साइकिल ने खीझकर दोहराया। “हम तो बहुत मज़े में हैं, और क्या होगा कबाड़खाने में!”
नई साइकिल ने इधर-उधर देखा और उत्साहित होकर बोली: “मेरे पुराने तहखाने से तो यह जगह बहुत बेहतर है। सूरज की धूप, ताज़ी हवा, नए दोस्त – यह तो शानदार है!”
पीली और सफेद साइकिलें अपने माथे पर हाथ मारना चाहती थीं, पर उनके पास माथा तो था ही नहीं। तो उन्होंने बस अपने हैंडल घुमा लिए और उस अजनबी को खुश होने दिया।
नई साइकिल बहुत जिज्ञासु थी, तो उसने एक से पूछा: “तुम कबाड़खाने में क्यों हो?”
पीली साइकिल का मुँह और लटक गया: “मैं तो अपनी पैदाइश से ही यहाँ…