बहुत समय पहले, दूर कहीं पहाड़ियों पर, एक बहुत छोटा सा पहाड़ी गाँव था। एक बूढ़ा लक्कड़हारा वहाँ रहता था। वह एक सादा जीवन जीता। उसने अपना पूरा जीवन कठोर परिश्रम में बिता दिया ताकि वह अपने परिवार का भरणपोषण कर सके।
पहाड़ से आती नदी के पास एक जगह थी जहाँ वह पेड़ काटता और नीचे बहती नदी के रास्ते उन्हें एक तालाब के किनारे बने एक छोटे गाँव तक पहुँचा देता, जहाँ रहने वाले लोग उन बहते तनों को पकड़ लेते और उस लकड़ी से कटोरे और फर्नीचर आदि ज़रूरत का सामान बनाते।
एक दिन, जब वह एक पेड़ काट रहा था, उसके हाथ से उसकी कुल्हाड़ी फिसलकर नदी में जा गिरी। लक्कड़हारा उसे बचाने की कोशिश भी नहीं कर पाया क्योंकि नदी का वेग तेज़ था और ख़तरनाक भी। दुखी होकर वह वहीं चलने और रोने लगा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि बिना कुल्हाड़ी के उनका गुज़ारा कैसे होगा। तभी बुध, धन और सौभाग्य के देवता, जो वहाँ से गुज़र रहे थे, ने लक्कड़हारे के रोने की आवाज़ सुनी, तो वह यह जानने के लिए रुक गए कि कौन परेशानी में है। उन्होंने देखा कि एक बूढ़ा आदमी नदी के पास अपनी कुल्हाड़ी खो जाने के कारण रो रहा था, और इसलिए उन्होंने तय किया कि वे उसकी सहायता करेंगे। वे पानी के अंदर गए और एक सोने की कुल्हाड़ी निकाल लक्कड़हारे के पास ले आए।
“धन्यवाद, बुधदेवता, मगर यह मेरी कुल्हाड़ी नहीं है,” लक्कड़हारे ने कहा। “यह कुल्हाड़ी बहुत सुंदर है, मगर मुझे मेरी पुरानीवाली ही पसंद है। उसपर मेरे हाथ की पकड़ सही रहती है। क्या आप एक बार फिर पानी में देखेंगे कि आपको और क्या मिलता है?”
बुध हैरान थे कि लक्कड़हारे ने इतनी महँगी सोने की कुल्हाड़ी लेने से इनकार कर दिया था, मगर वह…