एक समय की बात है, एक बतख थी। वह एक झील के बीचों-बीच एक छोटे से टापू पर रहती थी, जो चारों ओर से ऊँचे-ऊँचे पौपलर पेड़ों से घिरा हुआ था। उस झील में कई बतख परिवार रहते थे, और साथ ही हंस, मेंढक और मछलियाँ भी थीं।
वह बतख अपना ख़ुद का परिवार चाहती थी और उसकी आशा में उत्सुक रहती। वह अकसर यह सपना देखा करती थी कि जब उसके पीछे-पीछे नन्हें-नन्हें बच्चे तैर रहे होंगे तो वह कितनी खुश होगी। वह अपने अंडों पर बैठी रहती और बेसब्री से उनके फूटने का इंतज़ार करती।
जल्द ही अंडों के अंदर से ठक-ठक की आवाज़ें आने लगीं। एक-एक करके अंडे फूटने लगे और नन्हीं चोंचें दुनिया में बाहर झाँकने लगीं। मम्मी बतख ज़ोर-ज़ोर से क़ूँ-क़ूँ करके उनका स्वागत करने लगी और खुशी से झूम उठी। छह अंडों से बच्चे निकले और आगे-पीछे डगमगाते हुए चलने लगे। वे सब पीले थे, जैसे छह चमकते हुए सूरज। हर बतख का बच्चा एक से बढ़कर एक सुंदर था!
वे बहुत ही अधीर और उत्साहित थे कि झाड़ियों के पार क्या है, लेकिन जब भी कोई बतख का बच्चा उसके ज़्यादा पास चला जाता, तो मम्मी बतख अपनी चोंच से उसे रोक लेती। अब वह घबराकर सातवें अंडे के फूटने का इंतज़ार कर रही थी। वह अंडा बाकियों से थोड़ा बड़ा था, और उसमें से बच्चा बाहर आने को तैयार ही नहीं लग रहा था।
कुछ समय बाद, ठक-ठक की आवाज़ें फिर से आने लगीं। पहले एक छोटी सी दरार आई, और फिर जब पूरा अंडा फूट गया तब एक सिर ने दम लगाकर बाहर निकलने की कोशिश की। यह सिर बाकी बच्चों से बड़ा था, और उसकी रंगत राख जैसी भूरी थी। वह बतख का बच्चा अंडे से बाहर लुढ़क कर गिरा, और सभी ने देखा कि वह गोल-मटोल था,…